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Saturday, July 23, 2011

अब और क्या बचा है मेरे पास


चित्र गुगल साभार



सबकुछ तो दे दिया तुम्हें
अपनी नींद, चैन
भुख और प्यास
अब और क्या बचा है
मेरे पास।
कुछ भी तो नहीं है
सिवा चंद धुंधली यादों के।
उन यादगार लम्हों को ही
घूॅट घूटॅ कर पीता हॅु।
ख्वाबों को सिरहाने रख
एहसासों को बिछाता हुॅ।
जज्बातों को ओढ़कर
कोशीश करता हुॅ
गुजरे हुए लम्हों को
खींच कर उन्हें
अपने करीब लाने की।
पर क्या करू
पलकें भारी नहीं होती
और न ही
पहले की तरह चाॅद
बातें करता है।
रात गुजरती जा रही है
हाथ में पकड़े हुए
रेत की तरह
लम्हा - लम्हा।
बड़े मनुहार के बाद
चाॅद मुंडेर पर आकर
बैठता है।
मैने पुछा उससे
क्या हुआ
तुम मुझसे बात क्यों नही करते।
उसने कहा कि
क्या बात करू तुमसे
कुछ भी तो तुम्हारा नही रहा
बात करने को।
अपना अस्तित्व तक तुमने
उसे समर्पित कर दिया है।
मैं तो आज भी वही हुॅ
पर तुम!
अब तुम
तुम नही रहे।

Monday, July 18, 2011

एक आम आदमी की मौत........


चित्र गुगल साभार





आम इंसान कितना बेबस और नीरीह हो गया है। हर रोज तिल तिल कर मरता है। फिर भी जीने के लिए रोज नए नए समझौते करता है। चारो तरफ से गिद्ध दृष्टि उस पर पड़ी हुई है। डरता है, संभलता है फिर भी हर रोज चलता है। दिन आतंक के साये में गुजरता है और रात इस सोच में कि कल क्या होगा और उपर वाले का शुक्रिया अदा करता है आज किसी तरह निकल गया। पर बकरे की माॅ कब तक खैर मनाएगी। किसी न किसी रोज तो उॅट पहाड़ के नीचे आएगा ही। अगर आंतकी हमले से बच निकले तो सरकार जिंदा नही छोड़ेगी। इनके पास वैसे बहुत से हथियार है लोगों को मारने के लिए। पर अभी सरकार जिस हथियार का इस्तेमाल कर रही है वो है महगाॅई। ये ब्रह्मास्त्र है और इसका वार कभी खाली नही जाता। इसके जरिये सरकार आराम से धीरे धीरे लोगो का खुन चुस रही है।  अब चाहे कोई लाख चिल्लाए, चाहे कितना भी तड़फड़ाए क्या फर्क पड़ता है, मरना तो है ही।  वैसे देखा जाए तो हमें आतंकवादियों का शुक्रिया अदा करना चाहिए। कम से कम वो लोग हमें इतना तड़पाते तो नही है। बस एक धमाका और सबकुछ खत्म। परिवार वालों को भी आसानी होती है और पैसे बच जाते है। अब देखिए, अगर ऐसे मरे तो लाश को जलाओ, उसके लिए लकडि़याॅ खरीदो और भी तरह तरह के कर्मकांड। बम धमाके में मरने के बाद हमारे शरीर का ही पता नही चलता। सारे अगं अलग अलग और यहाॅ वहाॅ बिखरे हुए, तो जलाने का टेंशन खत्म। मीडिया में भी नाम आ जाता है। लोग मरने के बाद ही सही कम से कम जानते तो है कि इस नाम का कोई इंसान भी था। ऐसे मरने पर तो दस घर के बाद ग्यारहवाॅ घर जान भी नहीं पाता कि अमुक बाबु दुनिया में नही रहे। और तो और, वैसे मरने के बाद जहाॅ शरीर का कोई महत्व नही रहता। बम धमाके में मरने के बाद उसी मुर्दा शरीर का वैल्यु लाखों का हो जाता है। घर वाले भी खुश। सोचते हैं- चलो, जीते जी तो कुछ नहीं कर पाया मरने के बाद कुछ काम तो आया। वैसे भी हमारे रहनुमा ये खुलेआम कह चुके हैं कि हम आपकी सुरक्षा करने में असमर्थ है तो हम उनके द्वारा फैलाए चक्रव्युह में फॅस कर क्यों तिल तिल कर मरें। जब मरना ही है तो उस तरह क्यों न मरें जिससे कोई फायदा तो हो। तो जनाब, मैं भी बेकार और निठल्ला आदमी हुॅ। अब मैं भी कोई आतंकवादी खोज रहा हुॅ। अगर मिल गया तो पुछुगाॅ कि भाई अगली बार कहाॅ पर ब्लास्ट कर रहे हो, मुझे बता दो ताकि मेरा मरना कुछ काम तो आए। 

Wednesday, July 13, 2011

फिर से दहल उठी मुबंई



मुबंई में आज फिर धमाका हो गया। एक नही बल्कि तीन तीन जगहों पर। जाहिर है कई लोगों की जान गई और कितने ही लोग घायल हुए। हर बार की तरह इस बार भी कुछ सुने सुनाए जुमले दोहराए जाएगें। मसलन, ऐसी दुख की घड़ी में हम पीडि़त परिवारों के साथ है, हमें संयम बरतना चाहिए, ऐसे कृत्य करने वाले को बख्शा नही जाएगा, मरने वाले को इतना तथा घायलों को इतना मुआवजा दिया जाएगा। हमारे नेता ये सब कह कर इन जुमलों को फिर से सहेज कर रख देगें ताकि अगले बम धमाके में फिर से काम आ सके। हम कई सालों से आतंक झेलते आ रहे है। हम भारतीय भी संयम के मामले में कमाल के है। मेरे ख्याल से इसे गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड में स्थान मिलना चाहिए। हम सभी जानते है कि सीमा पार के अलावे हमारे देश में भी कुछ ऐसे तत्व मौजुद है जो इस आतंक के खेल को बखुबी खेल रहे है। अब तो ये भी रोजमर्रा की बाते लगती है। जिन लोगों ने हमारे देश की अस्मिता यानि कि संसद भवन पर हमला किया जब उन्हें बचाने की कोशीश की जा रही है तो क्या हम ये आशा कर सकते हैं कि हमारे देश में ऐसी घटना दोबारा नहीं होगी। शायद ही इन सब बातों से किसी को कोई फर्क पड़ता होगा। ऐसी घटनाएॅ दो तीन दिनों तक चर्चा का विषय बनती है और हम फिर से अपने पुराने ढर्रे पर लौट आते है और इंतजार करते है अगले धमाके का। अमेरिका में ग्यारह सिंतबर के हमले के बाद अब तक कोई दुसरा आतंकवादी हमला नही हुआ। यही नही, उसने उन लोगों को नही बख्शा जिन्होंने इसकी साजिश रची थी। अब तो हमें समझ में आ जाना चाहिए कि अमेरिका क्यों नबंर वन है। हमने उनका भी क्या उखाड़ लिया जिन लोगों ने इससे पहले मुबंई को लहुलुहान किया था। कसाब महोदय अभी भी सरकारी मेहमान बने हुए है। आखिर हम भी अमेरिका की तरह क्यों नही बन सकते। क्यों हम इतने अक्षम और लाचार है कि आतंक के पहरूए हमें इस तरह की जलील मौत सौगात में दे जाते हैं। हमारी गुप्तचर संस्था क्या सिर्फ नाम के लिए है। आखिर क्यों हमे सारी चीजें घटना के बाद पता चलती हैं। या शायद हम सभी संवेदनहीनता की चरम सीमा तक पहुॅच गए है। हमारे नेता राजनीति अब देश के लिए नही अपने लिए करते है। नेता ही क्यों हमलोग भी अब देश के लिए नहीं अपने लिए ही जीते है। जिस देश की स्थिति ऐसी होगी उस देश में ये सब तो होगा ही। अराजकता अपना फन फैलाए है, भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और आतंकवाद के सामने हम बेबस है। ओशो रजनीश ने कहा था कि भारत देश में सिर्फ बुढ़े लोग रहते है। यहाॅ कोई युवा नही है। क्योंकि जिस देश में युवा होगा वो कभी गलत बर्दाश्त नहीं करेगा। वो आवाज उठाएगा, सिस्टम को बदल देगा क्योंकि युवाओं में ताकत होती है कुछ कर गुजरने की। बुढ़े लोग ऐसा नहीं कर सकते। तो हमें मान लेना चाहिए कि वास्तव में हमारा देश बुढ़ा हो गया है। अब यहाॅ कुछ नही हो सकता। अब हमें इंतजार करना चाहिए कि अगला धमाका कहाॅ होगा और उसमें कितने लोग मरेगें। 

Monday, July 11, 2011

कैसे कैसे रंग दिखाती है जिन्दगी



कैसे कैसे रंग दिखाती है जिन्दगी
कभी हॅसाती तो कभी रूलाती है जिन्दगी।

कभी खुशियों के बादल पर उड़ाती है तो
कभी गम के सागर में डुबाती है जिन्दगी।

कभी अपनों को दुर करती है तो
कभी गैरों को अपना बनाती है जिन्दगी।

कहीं मुफलिसी में बसर करती है तो
कहीं दौलत में नहाती है जिन्दगी।

कहीं तन्हाई में खुद पर शर्माती है तो
कहीं महफिल में जाम टकराती है जिन्दगी।

कैसे कैसे रंग दिखाती है जिन्दगी
कभी हॅसाती तो कभी रूलाती है जिन्दगी।

Friday, July 1, 2011

पहली वर्षगॉठ


चित्र गुगल साभार


लिजिए बंधुओं! हमने भी अपनी वर्षगॉठ मना ली। हमारे भी ब्लॉगींग में पुरे एक साल हो गए। हालाकि ब्लॉग के बारे में मैं 2009 में जान पाया था। पर उस समय भी हमने इसे ज्यादा महत्व नही दिया। फिर जुन 2010 में हमारे एक ब्लॉगर साथी अरूण साथी जी के प्रयास से मैं इसमें शामिल हुआ। मैने अपने लेखन को कभी भी महत्व नही दिया। क्योंकि उस समय भी और आज भी गजल क्या है, कविता क्या है, नज्म क्या है मुझे इसके बारे में कुछ भी नही मालुम। बस दिल में जो आता है उसे कागज पर लिख देता हुॅ और आप सभी के सामने पेश कर देता हुॅ। जब मैं दसवीं क्लास में था तभी से मैने कुछ न कुछ लिखना शुरू किया था। जिसका उस वक्त कोई मतलब नही होता था। उस वक्त भी और आज भी चंद लोग ही है जो ये जानते है कि मैं कुछ वाहियात सा लिखता भी हुॅ। मैं आप सभी का तहे दिल से शुक्रगुजार हुॅ कि इतने दिनों तक आप सभी ने मुझे झेला और मेरी हौसला अफजाई की। जिसकी वजह से मैं कुछ लिखने की हिम्मत कर सका। आदरणीय कुॅवर कुशमेश जी, गिरीश पकंज जी, सुनील जी, अरविंद जॉगिड जी, दिपक सैनी जी, रूपचंद शास्त्री जी एवं दुसरे अन्य ब्लॉगरों को पढ़कर आगे लिखने की हिम्मत करता रहा। आप जैसे महानुभावों को पढ़ना हमेशा एक सुखद अनुभूति रहा है। जिसकी वजह से मैं बहुत कुछ सीख पाया। आगे भी मैं ये कोशीश करता रहुॅगा। आप सभी महानुभावों से यह विनम्र निवेदन है कि आप सब अपना प्यार इसी तरह से बनाए रखें और हमारा मार्गदर्शन करते रहें। 
सबसे पहली बार मैनें एक गजल अखबार में देखी थी जो मुझे बेहद अच्छी लगी थी। उसे मैनें अपने पास बहुत दिनों तक रखा और अपनी डायरी में भी नोट कर लिया। आज मैं भुल गया हुॅ कि वास्तव में वो किनकी रचना थी। आज मैं अपनी उसी प्रेरणा को आप सभी के आगे प्र्रस्तुत कर रहा हुॅ। अगर आप सभी में से किन्ही को भी उस रचनाकार का नाम मालुम हो तो बताने की अवश्य कृपा करेगें ताकि मैं यहॉ पर उनका नाम डाल सकुॅ। धन्यवाद।


दोनो जहॉ तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब ए गम गुजार के।

वीरॉ है मयकद क्यों सागर उदास है
तुम क्या गए रूक गए साये बहार के।

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुमसे भी दिलफरेब है गम इंतजार के।

भुले से मुस्कुरा दिये थे वो आज शायद
मत पुछो कैसे भुले है वो लम्हें प्यार के।