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Friday, October 25, 2013

एक औरत हुँ मैं........

चित्र गूगल साभार




रचयिता हुँ मैं
तुम्हारी जिदंगी की।
मेरी कोख में ही तुम्हारी
नई कोपलें सृजित होती है।
सींचती हुँ  उन्हें
मैं अपने रूधिर से।
रंग भरती हुँ  मैं
तुम्हारी बेरंग जिन्दगी में।
कभी मॉं बनकर
तुम्हें दुलारती हुँ
कभी बहन बनकर
तुम्हें सवॉंरती हुँ ।
तो कभी बेटी बनकर
तुम्हारी जिदंगी को परिपूर्ण करती हुँ ।
फिर भी
जन्म-जन्मातंर तुम्हारे हाथों
प्रताड़ित हुई हुँ  मैं।
आखिर क्यों
क्षणिक आवेश में आकर
हैवानियत से भरा
कुकर्म करते हो।
कभी जन्म से पहले ही
हमारा कत्ल करते हो।
तो कभी
हमारी अस्मत और
संवेदनाओं को
तार-तार करते हो।
कभी दहेज के नाम पर
हमें जिंदा जलाते हो।
कभी अपनी हवस की खातिर
हमारा व्यापार करते हो।
शायद तुम्हें नही पता
तुम अपने हाथों ही
अपनी जड़ें काट रहे हो।
अगर मैं ना रही
तो बिखर जाओगे।
फिर मॉं, बहन, बेटी
और पत्नी
कहॉं से पाओगे।
आखिर कबतक समझोगे तुम
देवी हुँ 
सवर्दा पूजनीय हुँ  मैं
हॉं, एक औरत हुँ  मैं।