चित्र गुगल साभार
कितनी खुबसुरती से
सजाया था हमनेंअपने सपनों का घरौंदा।
वक्त के थपेड़ों से लड़कर
एक एक तिनके को जोड़कर
बड़े अरमानों से
हमने इसे बनाया था।
याद है
तुम हमेशा कहती थी
उगते हुए सुर्य को देखकर
कि जब इसकी लालिमा
हमारे घरौदें पर पड़ती है
तो ये ताजमहल से भी
ज्यादा खुबसुरत
नजर आता है।
अब जबकि
तुम चली गई हो
कभी न आने के लिए
एक बार आकर देखो
तुम्हारे इस घरौंदे की
क्या हालत हो गई है।
जगह जगह से
इसकी छत टूट गई है।
बारिश के मौसम में
कई जगहों से पानी टपकता है।
एक निष्फल
कोशीश करता हुॅ मैं
उस टपकते हुए पानी से
तुम्हारे बनाए गए
उस रंगोली को बचाने की।
लेकिन उसकी रेखाएॅ भी
बिखर गई है
बिल्कुल मेरी तरह।
उस वीरान हो चुके
घरौंदे में
एक थका हारा बुढ़ा
अपने जीवन की
अंतिम सॉसे ले रहा है।
रह रहकर उसकी निगाहें
दरवाजे की ओर उठती है।
किसी को सामने न पाकर
वो अपनी आखें बदंकर
सोचता है कि
कौन है जो उसके बाद
इस घरौंदे को
आबाद रखेगा।
और एक गहरी सॉस लेते ही
उसका शरीर
निष्प्राण हो जाता है।
ऑखें खुली रहती है
जैसे अब भी
किसी का
इंतजार कर रही हो।
टूटे हुए छत से
पानी टपक रहा है।
सुरज की तेज धुप
अपने वजुद का
अहसास करा रही है।
मार्मिक प्रस्तुति और घरोंदा सोने पर सुहागा
ReplyDeleteउस वीरान हो चुके
ReplyDeleteघरौंदे में
एक थका हारा बुढ़ा
अपने जीवन की
अंतिम सॉसे ले रहा है।
दिल को छूने वाली सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई
बेहद करुण व मार्मिक रचना .
ReplyDeletemarmik abhivyakti .aabhar
ReplyDeleteमार्मिक!!
ReplyDeletebhut hi sanvedansheel ehsaaso se bhari rachna...
ReplyDeleteबेहद गहरे और खूबसूरत भाव लिए हुए एक सुन्दर रचना....
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील और मर्मस्पर्शी कविता.
ReplyDeleteसादर
अपना घरौंदा हमेशा ही खूबसूरत लगता है....
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना....
संवेदनाओं को झिंझोड़ -ती आपकी रचना ।बधाई आपको .
ReplyDeleteकोई वीरानी सी वीरानी है दस्त को देखके घर याद आया ।
जाने वाले लौट के फिर कभी नहीं आते दोश्त,जाने वालों की याद आती है ।
न जाने किस तरह तो रात भर छप्पड़ बनातें हैं .सवेरे ही सवेरे आंधियां फिर लौट आतीं हैं .
अमित भाई, बहुत खूब लिखा है आपने.
ReplyDeleteदिल से निकली हुई रचना के लिए आभार.
एक निष्फल
कोशीश करता हुॅ मैं
उस टपकते हुए पानी से
तुम्हारे बनाए गए
उस रंगोली को बचाने की।
लेकिन उसकी रेखाएॅ भी
बिखर गई है
बिल्कुल मेरी तरह।
क्या तारीफ़ करूं.निशब्द हो गया हूँ.
आपकी टिप्पणी के लिए भी तहे दिल से शुक्रिया.
आपने खूब समझा है साधारण इंसान के दर्द को.
मिलता रहूँगा.
शुभ कामनाएं.
सुभानाल्लाह.....बहुत शानदार लगी पोस्ट.....अकेलापन बहुत खतरनाक हो सकता है अगर वो 'पी' के साथ न हो.....लाजवाब|
ReplyDelete@ आपकी विशाल जी के ब्लॉग पर साधारण आदमी पर की गयी टिप्पणी से मैं आपके साथ सहमत हूँ|
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
ऑखें खुली रहती है
ReplyDeleteजैसे अब भी
किसी का
इंतजार कर रही हो।
....बहुत मार्मिक प्रस्तुति..आभार
नि:शब्द करते भाव ............
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और मार्मिक रचना!
ReplyDeleteबेहद मार्मिक चित्रण्………शायद यही सच भी है ।
ReplyDeleteअमित जी ,
ReplyDeleteआपके ह्रदय से निकली रचना ने झकझोर दिया मन मानस को | अंतस को छू गयी |
'घरौंदा ' को केंद्र में रखकर जिस तरह से मार्मिक भावों का शब्द चित्र गढ़ा है आपने वाकई बहुत ही सुन्दर है |
रचना में वेदना की सहज अनुभूति आदि से अंत तक हो रही है |..........बस यही तो कविता है !
आप सभी महानुभावों का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हुॅ। जिन्होने अपना कीमती वक्त मेरी रचना को दिया। सादर।
ReplyDeletebehad hridayasparshi rachna.
ReplyDeleteज़बरदस्त भावों से ओत-प्रोत.बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteवाह,इस भावनापूरित कविता के माध्यम से आप जो कहना चाह रहे हैं वह पाठकों तक दिल के रास्ते से हो कर पहुंच रहा है।
ReplyDeleteसच है घरोंदा एक से नही ... दोनो के प्रेम से चलता है ...
ReplyDeleteभाव को शब्द दे दिया है आपने ...
मार्मिक ...संवेदनशील रचना ..... निशब्द करती पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत....
ReplyDeleteमर्म को स्पर्श करती रचना...
ReplyDeleteसादर...