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Wednesday, May 25, 2011

घरौंदा



चित्र गुगल साभार





कितनी खुबसुरती से
सजाया था हमनें
अपने सपनों का घरौंदा।
वक्त के थपेड़ों से लड़कर
एक एक तिनके को जोड़कर
बड़े अरमानों से
हमने इसे बनाया था।
याद है
तुम हमेशा कहती थी
उगते हुए सुर्य को देखकर
कि जब इसकी लालिमा
हमारे घरौदें पर पड़ती है
तो ये ताजमहल से भी
ज्यादा खुबसुरत
नजर आता है।
अब जबकि
तुम चली गई हो
कभी न आने के लिए
एक बार आकर देखो
तुम्हारे इस घरौंदे की
क्या हालत हो गई है।
जगह जगह से
इसकी छत टूट गई है।
बारिश के मौसम में
कई जगहों से पानी टपकता है।
एक निष्फल
कोशीश करता हुॅ मैं
उस टपकते हुए पानी से
तुम्हारे बनाए गए
उस रंगोली को बचाने की।
लेकिन उसकी रेखाएॅ भी
बिखर गई है
बिल्कुल मेरी तरह।
उस वीरान हो चुके
घरौंदे में
एक थका हारा बुढ़ा
अपने जीवन की
अंतिम सॉसे ले रहा है।
रह रहकर उसकी निगाहें
दरवाजे की ओर उठती है।
किसी को सामने न पाकर
वो अपनी आखें बदंकर
सोचता है कि
कौन है जो उसके बाद
इस घरौंदे को
आबाद रखेगा।
और एक गहरी सॉस लेते ही
उसका शरीर
निष्प्राण हो जाता है।
ऑखें खुली रहती है
जैसे अब भी
किसी का
इंतजार कर रही हो।
टूटे हुए छत से
पानी टपक रहा है।
सुरज की तेज धुप
अपने वजुद का
अहसास करा रही है।

26 comments:

  1. मार्मिक प्रस्तुति और घरोंदा सोने पर सुहागा

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  2. उस वीरान हो चुके
    घरौंदे में
    एक थका हारा बुढ़ा
    अपने जीवन की
    अंतिम सॉसे ले रहा है।
    दिल को छूने वाली सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई

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  3. बेहद करुण व मार्मिक रचना .

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  4. bhut hi sanvedansheel ehsaaso se bhari rachna...

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  5. बेहद गहरे और खूबसूरत भाव लिए हुए एक सुन्दर रचना....

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  6. बहुत संवेदनशील और मर्मस्पर्शी कविता.

    सादर

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  7. अपना घरौंदा हमेशा ही खूबसूरत लगता है....
    भावपूर्ण रचना....

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  8. संवेदनाओं को झिंझोड़ -ती आपकी रचना ।बधाई आपको .
    कोई वीरानी सी वीरानी है दस्त को देखके घर याद आया ।
    जाने वाले लौट के फिर कभी नहीं आते दोश्त,जाने वालों की याद आती है ।
    न जाने किस तरह तो रात भर छप्पड़ बनातें हैं .सवेरे ही सवेरे आंधियां फिर लौट आतीं हैं .

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  9. अमित भाई, बहुत खूब लिखा है आपने.
    दिल से निकली हुई रचना के लिए आभार.


    एक निष्फल
    कोशीश करता हुॅ मैं
    उस टपकते हुए पानी से
    तुम्हारे बनाए गए
    उस रंगोली को बचाने की।
    लेकिन उसकी रेखाएॅ भी
    बिखर गई है
    बिल्कुल मेरी तरह।

    क्या तारीफ़ करूं.निशब्द हो गया हूँ.

    आपकी टिप्पणी के लिए भी तहे दिल से शुक्रिया.
    आपने खूब समझा है साधारण इंसान के दर्द को.
    मिलता रहूँगा.
    शुभ कामनाएं.

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  10. सुभानाल्लाह.....बहुत शानदार लगी पोस्ट.....अकेलापन बहुत खतरनाक हो सकता है अगर वो 'पी' के साथ न हो.....लाजवाब|

    @ आपकी विशाल जी के ब्लॉग पर साधारण आदमी पर की गयी टिप्पणी से मैं आपके साथ सहमत हूँ|

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  11. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  12. ऑखें खुली रहती है
    जैसे अब भी
    किसी का
    इंतजार कर रही हो।

    ....बहुत मार्मिक प्रस्तुति..आभार

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  13. बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना!

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  14. बेहद मार्मिक चित्रण्………शायद यही सच भी है ।

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  15. अमित जी ,

    आपके ह्रदय से निकली रचना ने झकझोर दिया मन मानस को | अंतस को छू गयी |

    'घरौंदा ' को केंद्र में रखकर जिस तरह से मार्मिक भावों का शब्द चित्र गढ़ा है आपने वाकई बहुत ही सुन्दर है |

    रचना में वेदना की सहज अनुभूति आदि से अंत तक हो रही है |..........बस यही तो कविता है !

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  16. आप सभी महानुभावों का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हुॅ। जिन्होने अपना कीमती वक्त मेरी रचना को दिया। सादर।

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  17. behad hridayasparshi rachna.

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  18. ज़बरदस्त भावों से ओत-प्रोत.बहुत बढ़िया.

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  19. वाह,इस भावनापूरित कविता के माध्यम से आप जो कहना चाह रहे हैं वह पाठकों तक दिल के रास्ते से हो कर पहुंच रहा है।

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  20. सच है घरोंदा एक से नही ... दोनो के प्रेम से चलता है ...
    भाव को शब्द दे दिया है आपने ...

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  21. मार्मिक ...संवेदनशील रचना ..... निशब्द करती पंक्तियाँ

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  22. बहुत ही खुबसूरत....

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  23. मर्म को स्पर्श करती रचना...
    सादर...

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