चित्र गूगल साभार
ऐ खुदा, मुझे फिर से ये सजा न दे
कज़ा है मुकद्दर मेरा जिंदगी का पता न दे।
अश्कों से भर गया है दरिया-ए-मोहब्बत मेरा
फिर से चाहुँ मैं किसी को ऐसी दुआ न दे।
मुद्दतों बाद एक मुस्कान मेरे लबों पे आई है
देखना, फिर से कोई ज़ख्म मुझे रूला न दे।
ढुढँता रहा मैं तुझे दर-ब-दर इंसानों में
मुझे फिर से कोई दैर-ओ-हरम का पता न दे।
बहुत खूब ... अच्छे शेर हैं सभी ....
ReplyDeleteDil ko chu lene wali sher hai.bahut khoob
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
ReplyDeleteमान गये भाई आपकी रचना को
बहुत सुन्दर है ||
दैर ओ हरम "मन्दिर मस्जिद " ??
प्रशंसनीय
ReplyDeletekya bat h...
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ReplyDeleteKya Hai Kaise
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