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Saturday, October 18, 2014

जिंदगी का पता न दे.........

चित्र गूगल साभार





ऐ खुदा, मुझे फिर से ये सजा न दे
कज़ा है मुकद्दर मेरा जिंदगी का पता न दे।

अश्कों से भर गया है दरिया-ए-मोहब्बत मेरा
फिर से चाहुँ मैं किसी को ऐसी दुआ न दे।

मुद्दतों बाद एक मुस्कान मेरे लबों पे आई है
देखना, फिर से कोई ज़ख्म मुझे रूला न दे।

ढुढँता रहा मैं तुझे दर-ब-दर इंसानों में
मुझे फिर से कोई दैर-ओ-हरम का पता न दे।

9 comments:

  1. बहुत खूब ... अच्छे शेर हैं सभी ....

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  2. Dil ko chu lene wali sher hai.bahut khoob

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  3. बहुत सुन्दर...उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले

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  4. मान गये भाई आपकी रचना को
    बहुत सुन्दर है ||

    दैर ओ हरम "मन्दिर मस्जिद " ??

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  5. प्रशंसनीय

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