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Monday, June 27, 2011

मैं मुस्कुराना चाहता हुॅ






अनसुलझी बातों को सुलझाना चाहता हुॅ
तेरे बगैर अब मैं मुस्कुराना चाहता हुॅ।

दिल की आरजु कि एक बार मिलुॅ तुमसे
जिदां हुॅ मैं, तुम्हें बताना चाहता हुॅ।

झड़ जाते हैं जिन दरख्तों के पत्ते पतझड़ में
आती है उनपर भी बहारें, तुम्हे दिखाना चाहता हुॅ।

टुटा था जो साज ‘ए’ दिल तेरे चले जाने से
उसमें बजती हुई जलतरंगों को तुम्हें सुनाना चाहता हुॅ।

अनसुलझी बातों को सुलझाना चाहता हुॅ
तेरे बगैर अब मैं मुस्कुराना चाहता हुॅ।


17 comments:

  1. बहुत बढ़िया सर!


    सादर

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  2. बहुत खूब ..सकारात्मक सोच लिए अच्छी गज़ल

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  3. जीने के लिए यह सब जरुरी है बहुत उम्दा अशआर, बधाई

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  4. सकारात्मक सोच बहुत जरुरी है - अच्छी रचना

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  5. बहुत सुंदर भाव हैं.. बधाई.

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  6. वाह अमित भाई , ये नजरिया भी जरूरी है

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  7. टुटा था जो साज ‘ए’ दिल तेरे चले जाने से
    उसमें बजती हुई जलतरंगों को तुम्हें सुनाना चाहता हूं

    वाह ... बहुत खूब कहा है आपने ।

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  8. अनसुलझी बातों को सुलझाना चाहता हुॅ
    तेरे बगैर अब मैं मुस्कुराना चाहता हुॅ..

    यूँ मुस्कुराना वो भी उनके बगैर ... बहुत मुश्किल है ...
    कविता में कमाल के तेवर हैं ..

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  9. वाह...बहुत बढ़िया!

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  10. अनसुलझी बातों को सुलझाना चाहता हुॅ
    तेरे बगैर अब मैं मुस्कुराना चाहता हुॅ।

    बहुत सुंदर गज़ल ...इसे मै अपनी फेसबुक पर डाल रही हूँ

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  11. आपकी कविता की प्रशंसा के लिए सही में शब्द नही हैं हमारे पास !
    ...बहुत सुंदर कविता है आपकी...और आपकी फोटो से मिलता संदेश भी .....

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  12. टुटा था जो साज ‘ए’ दिल तेरे चले जाने से
    उसमें बजती हुई जलतरंगों को तुम्हें सुनाना चाहता हुॅ।


    sunder satye ko ujagar karti prabhavshali prastuti.

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  13. बहुत खूब........शानदार ग़ज़ल है |

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  14. very beautiful lines really ;) :)

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