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Saturday, June 26, 2010

मॉं

रोज
जब में निकलता हुू
अपने घर से ।
थोड़ी ही दुर पर
ग्न्दे और फटे
चीथड़ों से लिपटे
मिलते है कुछ बच्चे।
दो चार डण्डे और
एक बड़ी सी फटी पालिथिन
जिसने घेर रखा है
जमीं का एक छोटा सा टुकड़ा।
उसके अन्दर बैठी है
उन बच्चों की मॉं
बिल्कुल बेबस और निरीह।
बाहर
कुछ ईटों को जोड़ कर
बना रखा है
उसने एक चुल्हा।
एक भगोने में
ना जाने क्या पक रहा है
शायद कल के मॉंगे हुए
कुछ चावल है।
सारे बच्चे
बहुत ही उत्सुकता से
उस चुल्हे को घेरे है।
उनकी मॉं ने
डाल दिया है
अधपके चावल नमक के साथ
उनकी पत्तलो पर।
सारे टूट पड़ते है
एक साथ
अपने अपने पत्तलों पर
और चन्द मिनटों में ही
चट कर जाते है
अपने हिस्से का चावल।
एक बार फिर से
मस्त होकर
सारे बच्चों ने
खेलना शुरू कर दिया है।
मॉं उठती है
अपने हलक को
गीला करती है
पानी के चन्द घुंंटों से।
और देखती है
अपने उन बच्चों को
बड़े ही ममत्व भाव से।
जिन्हे
इस बात का इल्म भी नही
कि मॉं
आज तीसरे दिन भी
भुखी रह गई।