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Wednesday, August 29, 2012

एक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया......


चित्र गूगल साभार





मैं उसको ढुढॅंता उम्र-ए-तमाम रह गया
वो चला गया बस उसका नाम रह गया।

सोचता हु समेट लु हर शै को बॉहों में
कहीं अफसोस न हो बाकी कुछ काम रह गया।

जिदंगी को दॉव पर लगाता रहा मगर
हारता रहा मैं नाकाम रह गया।

ऐसा हुआ हश्र मेरी शायरी का बस
एक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया।


12 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया

    सादर

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  2. ऐसा हुआ हश्र मेरी शायरी का बस
    एक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया।
    बहुत सराहनीय भावपूर्ण प्रस्तुति तुम मुझको क्या दे पाओगे ?

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  3. आपकी पोस्ट 30/8/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

    चर्चा - 987 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  4. बेहतरीन.....बहुत दिनों बाद कुछ डाला है आपने पर शानदार है।

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  5. भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....

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  6. जिदंगी को दॉव पर लगाता रहा मगर
    हारता रहा मैं नाकाम रह गया...

    इस नाकामी से बाहर आना ही जीवन की असल जीत है ... भावपूर्ण शेर हैं सभी ...

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  7. गहराई तक छूती रचना |बहुत अच्छी लगी
    आशा

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  8. ऐसा हुआ हश्र मेरी शायरी का बस
    एक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया।
    बहुत खूबसूरत गज़ल, भाई दिगम्बर नासवा जी से सहमत हूँ,
    इस नाकामी से बाहर आना ही जीवन की असल जीत है

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  9. वाह अमित जी बेहतरीन ग़ज़ल
    (अरुन = www.arunsblog.in)

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  10. प्रभावशाली ..आभार आपका !

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