चित्र गूगल साभार
मैं उसको ढुढॅंता उम्र-ए-तमाम रह गया
वो चला गया बस उसका नाम रह गया।
सोचता हु समेट लु हर शै को बॉहों में
कहीं अफसोस न हो बाकी कुछ काम रह गया।
जिदंगी को दॉव पर लगाता रहा मगर
हारता रहा मैं नाकाम रह गया।
ऐसा हुआ हश्र मेरी शायरी का बस
एक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया।
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
ऐसा हुआ हश्र मेरी शायरी का बस
ReplyDeleteएक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया।
बहुत सराहनीय भावपूर्ण प्रस्तुति तुम मुझको क्या दे पाओगे ?
आपकी पोस्ट 30/8/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा - 987 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
बेहतरीन.....बहुत दिनों बाद कुछ डाला है आपने पर शानदार है।
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteaapke kahne me koi baat hai.
ReplyDeleteजिदंगी को दॉव पर लगाता रहा मगर
ReplyDeleteहारता रहा मैं नाकाम रह गया...
इस नाकामी से बाहर आना ही जीवन की असल जीत है ... भावपूर्ण शेर हैं सभी ...
गहराई तक छूती रचना |बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteआशा
ऐसा हुआ हश्र मेरी शायरी का बस
ReplyDeleteएक शायर इस जहॉं में गुमनाम रह गया।
बहुत खूबसूरत गज़ल, भाई दिगम्बर नासवा जी से सहमत हूँ,
इस नाकामी से बाहर आना ही जीवन की असल जीत है
वाह अमित जी बेहतरीन ग़ज़ल
ReplyDelete(अरुन = www.arunsblog.in)
प्रभावशाली ..आभार आपका !
ReplyDeleteबेहतरीन amit jee
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