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Monday, October 15, 2012


चित्र गूगल साभार





एक ही दुनिया एक है धरती एक ही है आकाश
फिर क्यों आपस में लड़कर हम खो रहे विश्वास।

मैं हिन्दु तुम मुस्लिम ये सिख वो ईसाई है
एक लहु बहता रगों में फिर कैसी जुदाई है।

ये कैसा अधर्म मचा है देखो चारो ओर
दौलत के पीछे सब अपना लगा रहे है जोर।

कौड़ी कौड़ी जमा किया पर सबकुछ छोड़ कर जाना है
रिश्ते-नाते, धन-दौलत जीने का फकत बहाना है

दुनिया में आए हो तो फिर कुछ ऐसा कर जाओ
गैरों के लिए जी लो या गैरो के लिए मर जाओ।

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर भाव....

    कुंवर जी,

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  2. बहुत सुन्दर रचना. देखिये जानते सब हैं की जाना तो खाली हाथ ही है, मगर फिर भी हम बंटते आये हैं. हमें कभी दौलत ने बाटा है तो कभी किसी ने.

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १६ /१०/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी ,आपका स्वागत है |

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  4. अच्छे और सच्चे विचार !

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  5. सार्थक सोच लिये बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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