जब कभी मैं
तन्हाईयों से घबरा कर
अपनी ऑंखें बन्द करता हंु।
अक्सर
तन्हा होते हुए भी
मैं तन्हा नही रह पाता हुंं।
पता नही कहॉं से वो
मुस्कुराती और इठलाती हुई आ जाती है।
थाम कर मेरा हाथ अपने हाथों में
दूर बहुत दूर ले जाती है।
ले कर मुझे अपनी आगोश में
प्यार से मेरे गालों को चुमती है।
पहरों इसी तरह बैठ कर हम
एक दूसरे को देखा करते है।
पता ही नहीं चलता
कब रात घिर आई और
कब सबेरा हो गया।
वास्तव में
उसने मेरा साथ छोड़ा है
उसकी यादों ने नही।
वो अब भी मुझसे मिलती है
कभी मेरी यादों में
तो कभी मेरी तन्हाईयों में।
और इस तरह
अक्सर
मैं तन्हा होते हुए भी
तन्हा नहीं रह पाता हंुं।
sunder chitra per ek
ReplyDeletesunder see rachna
bahoot khoob.......
आपकी जज़्बात... पर टिपण्णी का शुक्रिया...
ReplyDelete"जब कभी मैं
तन्हाईयों से घबरा कर
अपनी ऑंखें बन्द करता हंु।
अक्सर
तन्हा होते हुए भी
मैं तन्हा नही रह पाता हुं।"
बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी, एक खुबसूरत नज़्म बन पड़ी है, शुभकामनाये..ऐसे ही लिखते रहिये...
अति सुंदर प्रशंसनीय प्रस्तुति
ReplyDeletekya bata hai...chitra se sunder rachna lagi...doino jaise ek dusre se hod laga arhe ho ki kaun sunder hai
ReplyDeleteचाँद से, फूल से
ReplyDeleteया मेरी जुबाँ से सुनिए
हर जगह आपका किस्सा है,
जंहा से सुनिए!
इसी लिए लोग आशिकों को पागल कहते हैं। वे क्या जाने वह खोया- खोया क्यों रहता है
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