इस ब्लाग की सभी रचनाओं का सर्वाधिकार सुरक्षित है। बिना आज्ञा के इसका इस्तेमाल कापीराईट एक्ट के तहत दडंनीय अपराध होगा।

Saturday, August 7, 2010

तन्हाईयॉं


जब कभी मैं
तन्हाईयों से घबरा कर
अपनी ऑंखें बन्द करता हंु।
अक्सर
तन्हा होते हुए भी
मैं तन्हा नही रह पाता हुंं।
पता नही कहॉं से वो
मुस्कुराती और इठलाती हुई आ जाती है।
थाम कर मेरा हाथ अपने हाथों में
दूर बहुत दूर ले जाती है।
ले कर मुझे अपनी आगोश में
प्यार से मेरे गालों को चुमती है।
पहरों इसी तरह बैठ कर हम
एक दूसरे को देखा करते है।
पता ही नहीं चलता
कब रात घिर आई और
कब सबेरा हो गया।
वास्तव में
उसने मेरा साथ छोड़ा है
उसकी यादों ने नही।
वो अब भी मुझसे मिलती है
कभी मेरी यादों में
तो कभी मेरी तन्हाईयों में।
और इस तरह
अक्सर
मैं तन्हा होते हुए भी
तन्हा नहीं रह पाता हंुं।

6 comments:

  1. sunder chitra per ek
    sunder see rachna

    bahoot khoob.......

    ReplyDelete
  2. आपकी जज़्बात... पर टिपण्णी का शुक्रिया...
    "जब कभी मैं
    तन्हाईयों से घबरा कर
    अपनी ऑंखें बन्द करता हंु।
    अक्सर
    तन्हा होते हुए भी
    मैं तन्हा नही रह पाता हुं।"

    बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी, एक खुबसूरत नज़्म बन पड़ी है, शुभकामनाये..ऐसे ही लिखते रहिये...

    ReplyDelete
  3. अति सुंदर प्रशंसनीय प्रस्तुति

    ReplyDelete
  4. kya bata hai...chitra se sunder rachna lagi...doino jaise ek dusre se hod laga arhe ho ki kaun sunder hai

    ReplyDelete
  5. चाँद से, फूल से
    या मेरी जुबाँ से सुनिए
    हर जगह आपका किस्सा है,
    जंहा से सुनिए!

    ReplyDelete
  6. इसी लिए लोग आशिकों को पागल कहते हैं। वे क्या जाने वह खोया- खोया क्यों रहता है

    ReplyDelete