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Friday, August 27, 2010

इन्तजार

सारी जिन्दगी जिसे ढूंढते रहे हम,
सारी जिन्दगी जिसका इन्तजार था।
जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।
यूं तो बहुत है गुल इस चमन में,
पर जिस पर नज़र गई,
वो किसी और का हमराज था।
जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।
उनकी हाथों का खंजर जो,
भीगा है मेरे खून-ए-जिगर से।
मेरे उस जिगर को,
कभी उनसे ही प्यार था।
़जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।

2 comments:


  1. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई
    ब्लाग जगत में आपका स्वागत है
    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

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  2. "सारी जिन्दगी जिसे ढूंढते रहे हम,
    सारी जिन्दगी जिसका इन्तजार था।
    जब वो मिला मुझे तो पता चला,
    वो मेरी ही मौत का तलबगार था।"

    बहुत खूब एक अच्छी रचना है खासकर ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई .....ऐसे ही लिखते रहिये शुभकामनाये ........

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