सारी जिन्दगी जिसका इन्तजार था।
जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।
यूं तो बहुत है गुल इस चमन में,
पर जिस पर नज़र गई,
वो किसी और का हमराज था।
जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।
उनकी हाथों का खंजर जो,
भीगा है मेरे खून-ए-जिगर से।
मेरे उस जिगर को,
कभी उनसे ही प्यार था।
़जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।
"सारी जिन्दगी जिसे ढूंढते रहे हम,
ReplyDeleteसारी जिन्दगी जिसका इन्तजार था।
जब वो मिला मुझे तो पता चला,
वो मेरी ही मौत का तलबगार था।"
बहुत खूब एक अच्छी रचना है खासकर ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई .....ऐसे ही लिखते रहिये शुभकामनाये ........