चित्र गूगल साभार
रचयिता हुँ मैं
तुम्हारी जिदंगी की।
मेरी कोख में ही तुम्हारी
नई कोपलें सृजित होती है।
सींचती हुँ उन्हें
मैं अपने रूधिर से।
रंग भरती हुँ मैं
तुम्हारी बेरंग जिन्दगी में।
कभी मॉं बनकर
तुम्हें दुलारती हुँ
कभी बहन बनकर
तुम्हें सवॉंरती हुँ ।
तो कभी बेटी बनकर
तुम्हारी जिदंगी को परिपूर्ण करती हुँ ।
फिर भी
जन्म-जन्मातंर तुम्हारे हाथों
प्रताड़ित हुई हुँ मैं।
आखिर क्यों
क्षणिक आवेश में आकर
हैवानियत से भरा
कुकर्म करते हो।
कभी जन्म से पहले ही
हमारा कत्ल करते हो।
तो कभी
हमारी अस्मत और
संवेदनाओं को
तार-तार करते हो।
कभी दहेज के नाम पर
हमें जिंदा जलाते हो।
कभी अपनी हवस की खातिर
हमारा व्यापार करते हो।
शायद तुम्हें नही पता
तुम अपने हाथों ही
अपनी जड़ें काट रहे हो।
अगर मैं ना रही
तो बिखर जाओगे।
फिर मॉं, बहन, बेटी
और पत्नी
कहॉं से पाओगे।
आखिर कबतक समझोगे तुम
देवी हुँ
सवर्दा पूजनीय हुँ मैं
हॉं, एक औरत हुँ मैं।
बहुत सुंदर अमित जी स्त्री के विभिन्न रूपों में भी गज़ब का सामंजस्य है ... बहुत दिनों बाद को पढ़ा.. मेरे भी ब्लॉग पर आये
ReplyDeleteवक्त की थोडी कमी है इसलिये ब्लाग पर कम वक्त दे पाता हुँ.
Deleteभावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने..
ReplyDeleteआखिर कबतक समझोगे तुम???
ReplyDeleteऐसी ही सोच अगर हर पुरुष में आ सके तो शायद मिल जायेगा इस प्रश्न का उत्तर … सार्थक अभिव्यक्ति
बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
बहुत सुन्दर अभिवक्ति !
ReplyDeleteनई पोस्ट सपना और मैं (नायिका )
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
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satik v sarthsk prastuti
ReplyDeleteगहरी सोच से उपजी रचना ...
ReplyDeleteकाश हर पुरुष की मनःस्थिति बदल सके ...
बेहतरीन और लाजवाब ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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