बिहार में एक बार फिर से रणभेरी बज चुकी है। सभी दलों ने अपनी तैयारियॉं शुरू कर दी है। एक बार फिर से वो वक्त आ गया है जब सारे नेता जनता की रहमो करम पे होते है। गरीबी, महगॉंई और बेबसी के बोझ तले दबी हुई जनता अचानक उन्हें भगवान दिखाई देने लगती है। पॉंच सालों तक जिस जनता को दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह दुत्कार दिया जाता है, वो एकदम से उन्हे अपना तारणहार दिखाई देने लगता है। खैर ये लोकतन्त्र है और लोकतन्त्र में ये सब तो चलता रहता है। परन्तु अब बात कुछ राजनीति की। चुनाव के वक्त सभी छुटभैये नेताओं से लेकर बड़े नेताओं तक में जिस चीज की मारा मारी होती है वो है टिकट हासिल करना। येन केन प्राकरेण चाहे धन बल द्वारा या बाहुबल के द्वारा। क्या हमे नही लगता संविधान में कुछ संशोधन करने की जरूरत है। जरा सोचिए, हमारे देश की राजनीति में कोई भी महिला या पुरूष चुनाव लड़ सकता है। बशर्ते वो मानसिक रूप से बीमार न हो, वह भारत का नागरिक हो तथा वह दिवालिया न हो और उसपर किसी तरह का कोई आरोप सिद्ध न हुआ हो। लेकिन इसके इतर भी कुछ चीजें है जिसपर हमें ध्यान देने की जरूरत है। जरा सोचिए, एक चतुर्थवर्गीय कर्मचारी को भी चपरासी पद पर कार्य करने के लिए कुछ आवश्यक अहर्ताओं को पुरा करना पड़ता है। मसलन शैक्षणिक योग्यता। एक चपरासी को आफिस में झाडु लगाने एवं चाय नास्ता करानेक की नौकरी पाने के लिए कम से कम आठंवी पास होना होता है और उस पद पर काम करने के लिए उसे एक परीक्षा पास करनी होती है। लेकिन हमारे नेताओं को जिनके हाथ में पुरे देश एवं राज्य की बागडोर होती है, उनके लिए ऐसा कोई भी नियम या कायदा कानुन नहीं है। एक अनपढ़ व्यक्ति भी हमारे राज्य का मुख्यमन्त्री या देश का प्रधानमन्त्री बन सकता है और पढ़े लिखे आफिसर उन्हें सल्युट करते है। हमारे नेताओं की सेवा समाप्ति की भी कोई नििश्चत उम्र नहीं होती। जबतक उनकी मर्जी है तबतक वे राजनीति कर सकतें है अथवा किसी भी पद पर बने रह सकते है। जबकि सरकारी कार्यालयों एवं प्राईवेट संस्थानों में साठ सालों के बाद ये कह कर कि उम्र के इस पड़ाव पर कार्य करने की क्षमता चुकने लगती है, उनकी सेवा समाप्त कर दी जाती है। जब एक आम आदमी की काम करने की क्षमता साठ सालों के बाद खत्म होने लगती है तो जरा बताईये नेताओ ने ऐसा कौन सा अमृत पी रखा होता है जो मृत्यु तक वे राजनीति में दखल देते रहते है या किसी न किसी पद पर आसिन रहते है। जब साठ साल के बाद वे लोग एक आफिस का काम ठीक ढंग से नही कर सकते तो हमारे नेता पुरे देश अथवा पुरे राज्य का काम कैसे कर सकते है। ये लोकतन्त्र है और लोकतन्त्र ``जनता का जनता के लिए और जनता के द्वारा किया जाने वाला शासन होता है। नेता और सरकारी कर्मचारी जनता के सेवक होते है। कोई भी सरकारी सेवक किसी भी तरह के घोटाले या गलत आचरण में पकड़ा जाता है तो उसे तत्काल सेवा से विमुक्त कर दिया जाता है एवं उसके वेतन भुगतान पर रोक लगा दी जाती हैै, जबतक कि उसके उपर दायर किए गए मुकदमें का फैसला न हो जाए। लेेकिन हमारे नेताओं के साथ ऐसा नही होता। लाखों करोड़ो डकारने के बाद भी वो शान से घुमते हैं एवं उन्हें वो सारी सहुलियतें मिलती रहती है जो उन्हें हासिल होती है, जबतक कि वो आरोपी सिद्ध नहीं हो जाते। जिस तरह से इस लोकतन्त्र रूपी मकान को सही सलामत रखने के लिए सरकारी कर्मचारी रूपी खंभे की जरूरत होती है, उसी तरह हमारे नेता भी इस लोकतत्रं के मजबुत खंभे है। फिर इनके लिए दो अलग अलग नीति क्यों!
बजा फ़रमाया आपने, मुश्किल यह है की सारी नीतियां तो इन नेताओं द्वारा ही बनाई जाती है. फिर अपने रास्ते पर कांटे कौन बिछाएगा?
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