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Monday, September 20, 2010

बचपन

मैंने देखा
देश के भविश्य को
कुपोशण से ग्रसित
भुख से रोता-बिलखता हुआ।
पेट की आग को
शान्त करने के लिए
कुड़े और कचरे के ढेर से
रोटियों के टुकड़े ढंुंढता हुआ।
अपनी छोटी मोटी जरूरतों को
पुरा करने के लिए
चोरियॉं करता हुआ।
बदलते मौसम के
थपेड़ों को सहकर
बेफिक्री से फुटपाथों पर
शनै शनै गुजरता हुआ बचपन।
छोटी छोटी खुिशयों में
अपने अस्तित्व को
तलाश करता हुआ बचपन।
चाय की दुकानों, रेहड़ियों पर
झुठे बर्तनों को
साफ करता हुआ बचपन।
जिसके लिए
पुस्तकों का कोई मतलब नहीं
और न ही
स्कूलों के कोई मायने है।
हर उस चीज के लिए
जिस पर उसका
संवैधानिक अधिकार है
तरसता हुआ बचपन।

3 comments:

  1. बिल्कुल सही कहा आपने. बहुत सच्चाई बयां करती हुई एक मार्मिक कविता. संवैधानिक अधिकार तो इस देश में 90 प्रतिशत लोंगों के लिए सपने भर है।

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  2. ऐसा लगता है जैसे शिक्षा का अधिकार कानून केवल सतही तौर पर दिखाने के लिए ही है.

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  3. बहुत खूब, अहसास वाकई गहरा है !!!!
    दिल को छू लेने वाला अहसास है जी

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