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Monday, October 18, 2010

निराशा



माना कि जिन्दगी को
घोर निराशाओं ने घेरा है।
दूर क्षितिज की ओर देखो
आने वाला एक नया सवेरा है।

फैलने दो आशा की किरण को
जिन्दगी रूपी जमीं पर
तुम्हारे आस-पास ही कहीं
तुम्हारी खुशियों का बसेरा है।

क्यों निराश होते हो तुम
ये तो माया जाल है
चन्द दिनों की है ये दुनिया
फिर क्या तेरा और क्या मेरा है।

10 comments:

  1. बहुत प्यारी लाइन है ...
    क्यों निराश होते हो तुम
    ये तो माया जाल है
    चन्द दिनों की है ये दुनिया
    फिर क्या तेरा और क्या मेरा है।

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  2. बहुत सुंदर कबिता. सुंदर प्रस्तुति.

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  3. aasha se bhari hui kavita..jeewan ka sanchaar kar gayi..
    behadd khoobsurat..
    shukriya..

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  4. ये बात हम सभी जानते हैं ....
    सब कुछ नश्वर है ....
    यहाँ स्थाई रूप से किसी ने नहीं रहना .....
    फिर भी तो मोह माया खत्म नहीं होती .....
    हम कभी संतुष्ट नहीं होते .....
    तभी तो ये उदासियाँ हैं .....!!

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  5. wahh ji!!!
    kamaal ka likhte hain aap!!
    kabhi islaah kariye:
    http://meourmeriaavaaragee.blogspot.com/

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  6. कविता के स्वर आशावादी हैं...अच्छी सोच।

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  7. माना कि जिन्दगी को
    घोर निराशाओं ने घेरा है।
    दूर क्षितिज की ओर देखो
    आने वाला एक नया सवेरा है।


    सुन्दर शब्द .. आशा से भरी पूरी रचना ..
    लिखते रहिये..
    बस अब इतनी विनती करता हूँ "हे ईश्वर! अब कलाम ना छूटे" @http://prakashpankaj.wordpress.com

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