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Thursday, October 28, 2010

कितने दूर, कितने पास



बैठा हूं शब के अंधेरे में
तेरी यादों को सीने से लगाए।
पहरों बीत गए
फलक पर निकल आया है चांद।
उसकी चांदनी कांटों की तरह चूभ रही है
मेरे दिल के किसी कोने में।
वो मुस्कुरा रहा है मेरी बेबसी पर
जैसे वो कह रहा हो मुझसे
छोड. दो जिद मुझे पाने की
क्या हुआ जो तुम मुझसे प्यार करते हो।
शाम होते ही तुम मेरा इन्तजार करते हो।
मेरा हमसाया तो ये आसमां है
इसके सिवा मुझे और जाना कहां है
मत देखो मुझे इन प्यार भरी नज़रों से
मेरे अक्स के सिवा
तुम कुछ और नहीं पाओगे
तड.पोगे तुम और
टूटकर बिखर जाओगे।
मुझे लगा
चांद और तुममें कितना फर्क है
वो दूर होते हुए भी
सबके कितने करीब है।
और हम
करीब होते हुए भी
कितने दूर हैं।

7 comments:

  1. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

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  2. चांद और तुममें कितना फर्क है...

    संवेदनशील कविता...आभार।

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  3. bahut khoobsoorat kavita aur ahsaas... awesome...

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  4. कहने को कुछ छोड़ा हो तो कहूँ.............आभार

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  5. DOORI ME HI PYAR BADHTA HAI | ALABHY KO PANE KI LALSA
    ACHCHHI ABHIVYAKTI

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  6. DOORI ME HI PYAR BADHTA HAI | ALABHY KO PANE KI LALSA
    ACHCHHI ABHIVYAKTI

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