कल जब मैने ये रचना डाली थी तो कुछ यांत्रिक गड़बड़ी के कारण कुछ लोगों के कम्प्युटर पर आ रही थी और कुछ लोगों के कम्प्युटर पर नहीं। इसलिए आज मैंने इसे फिर से पोस्ट किया है।
वो इन्सॉ ही क्या जिसमें
मुश्किलो से लड़ने का जज्बा न हो
लहरें फिर से वापस आती है
पत्थरों से टकराने के बाद।
कबतक रोकेगी रास्ता सच का
ये झुठ और फरेब की दीवारें
बड़े शान से निकलता है सुरज
हर घने कोहरे के बाद।
मंजिले भी सर झुकाती है
बुलदं इरादों के आगे ‘अमित’
रस्सीयॉ भी छोड़ जाती है निशान
पत्थरों पर आने जाने के बाद।
पंखों से नहीं हौसलों से उड़ान होती है
ReplyDeleteसुन्दर रचना...चित्र संयोजन बहुत बढ़िया
कबतक रोकेगी रास्ता सच का
ReplyDeleteये झुठ और फरेब की दीवारें
बड़े शान से निकलता है सुरज
हर घने कोहरे के बाद।
....बहुत प्रेरक रचना..भाव और शब्द संयोजन बहुत सुन्दर..
मंजिले भी सर झुकाती है
ReplyDeleteबुलदं इरादों के आगे ‘अमित’
मंजीलें सर झुकाती रहें ..और आप आगे बढ़ते रहें ...आपके होसले को सलाम ....
सच कहा आपने हौंसले के बात है, बहुत ही सुन्दर रचना...आभार.
ReplyDeleteवो इन्सॉ ही क्या जिसमें
ReplyDeleteमुश्किलो से लड़ने का जज्बा न हो
लहरें फिर से वापस आती है
पत्थरों से टकराने के बाद।
बेहतरीन.
बहुत ही बढ़िया रचना.तीनों पद दमदार .
ReplyDeleteआप की कलम को शुभ कामनाएं.
Very motivating and inspiring poem !
ReplyDeleteबड़े शान से निकलता है सूरज
ReplyDeleteहर घने कोहरे के बाद।
वाह,
इन प्रेरक पंक्तियों के लिए आपको बधाई।
वाह्, बहुत ख़ूबसूरत...अगर आपकी इजाज़त हो तो इसका प्रिंट लेना चाहूँगी...अपनी दीवार पर लगाने के लिए...
ReplyDeletebahut hi prerak panktiya..........
ReplyDeleteअमित जी, बहुत-बहुत धन्यवाद...वैसे फिलहाल तो प्रिंट नहीं ले पा रही हूँ, लेकिन जब भी लूँगी आपको मेल कर दूँगी...
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