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Thursday, February 3, 2011

जज्बा


कल जब मैने ये रचना डाली थी तो कुछ यांत्रिक गड़बड़ी के कारण कुछ लोगों के कम्प्युटर पर आ रही थी और कुछ लोगों के कम्प्युटर पर नहीं। इसलिए आज मैंने इसे फिर से पोस्ट किया है।



वो इन्सॉ ही क्या जिसमें
मुश्किलो से लड़ने का जज्बा न हो
लहरें फिर से वापस आती है
पत्थरों से टकराने के बाद।

कबतक रोकेगी रास्ता सच का
ये झुठ और फरेब की दीवारें
बड़े शान से निकलता है सुरज
हर घने कोहरे के बाद।

मंजिले भी सर झुकाती है
बुलदं इरादों के आगे ‘अमित’
रस्सीयॉ भी छोड़ जाती है निशान
पत्थरों पर आने जाने के बाद।

11 comments:

  1. पंखों से नहीं हौसलों से उड़ान होती है

    सुन्दर रचना...चित्र संयोजन बहुत बढ़िया

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  2. कबतक रोकेगी रास्ता सच का
    ये झुठ और फरेब की दीवारें
    बड़े शान से निकलता है सुरज
    हर घने कोहरे के बाद।
    ....बहुत प्रेरक रचना..भाव और शब्द संयोजन बहुत सुन्दर..

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  3. मंजिले भी सर झुकाती है
    बुलदं इरादों के आगे ‘अमित’

    मंजीलें सर झुकाती रहें ..और आप आगे बढ़ते रहें ...आपके होसले को सलाम ....

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  4. सच कहा आपने हौंसले के बात है, बहुत ही सुन्दर रचना...आभार.

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  5. वो इन्सॉ ही क्या जिसमें
    मुश्किलो से लड़ने का जज्बा न हो
    लहरें फिर से वापस आती है
    पत्थरों से टकराने के बाद।

    बेहतरीन.

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  6. बहुत ही बढ़िया रचना.तीनों पद दमदार .
    आप की कलम को शुभ कामनाएं.

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  7. Very motivating and inspiring poem !

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  8. बड़े शान से निकलता है सूरज
    हर घने कोहरे के बाद।

    वाह,
    इन प्रेरक पंक्तियों के लिए आपको बधाई।

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  9. वाह्, बहुत ख़ूबसूरत...अगर आपकी इजाज़त हो तो इसका प्रिंट लेना चाहूँगी...अपनी दीवार पर लगाने के लिए...

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  10. अमित जी, बहुत-बहुत धन्यवाद...वैसे फिलहाल तो प्रिंट नहीं ले पा रही हूँ, लेकिन जब भी लूँगी आपको मेल कर दूँगी...

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