ये साल अपने साध्ंय बेला की ओर अग्रसर है और नया साल नई खुशियों के साथ उदय होने वाला है। इस साल के साथ साथ हम इस सदी का एक दशक भी पुरा कर लेगें। इन सालों में हमने बहुत कुछ खोया है तो बहुत कुछ पाया भी है। हॉ कुछ जख्म ऐसे जरूर लगे है जो शायद ही कभी भर पाये। उनकी टीस हमें आजन्म महसुस होती रहेगी। इस साल हमारे देश में जितने बड़े बड़े घोटालों का पर्दाफाश हुआ है शायद ही कभी इससे पहले ये देखने में आया हो। आशा करते है कि आने वाला साल हमारे देश के शुभ हो एवं हमारा देश तरक्की के ओर अग्रसर रहे। आज की पोस्ट इससे पहले भी आ चुकी है पर इस इसकी कमी एक बार फिर से महसुस हो रही है। आशा है आपलोग का प्यार पहले की ही तरह मिलता रहेगा।
आप सभी ब्लागरों को मेरी तरफ से नए साल की ढेर सारी शुभकामनाए।
पैसा,
बन चुका है लोगों का ईमान
कुचल कर रख दी है
इसने लोगों की संवेदनाए।
पैसा,
कहीं ज्यादा बड़ा है
इंसानी रिश्तों से
आपसी प्रेम और भाईचारे से।
पैसा,
गढ़ता है
रिश्तों की बिल्कुल नई परिभाषा।
जिसके चारों तरफ बस
झूठ, फरेब और आडम्बरों की
एक अलग दुनिया है।
पैसा,
काबिज है लोगों की सोच पर
इस कदर जकड़ रखा है कि
सिवा इसके
लोगों को कुछ नजर नहीं आता।
पैसा,
जो चलायमान है
कभी एक जगह नहीं रहता।
फिर भी लोग
इसके पीछे दिवानों की तरह
सारी जिन्दगी भागते हैं।
पैसा,
चाहे जितना एकत्र करो
इसकी लिप्सा कभी खत्म नहीं होती।
क्या हमें
इसका एहसास नहीं होता
कि शायद हम बदल चुके हैं
उस रक्त पिपासु राक्षस की तरह।
फर्क सिर्फ इतना है कि
उसे प्यास है खुन की
और हमें पैसों की।
कि शायद हम बदल चुके हैं
ReplyDeleteउस रक्त पिपासु राक्षस की तरह।
फर्क सिर्फ इतना है कि
उसे प्यास है खुन की
और हमें पैसों की।
बहुत सार्थक प्रस्तुति...आज पैसा हरेक संबंधों से बढ़कर हो चुका है..
कमाले यार जितना भी मग़र मत भूल
ReplyDeleteकफ़न में जेबें नहीं हुआ करती
सुंदर रचना , बधाई
बाप बड़ा न भैय्या /
ReplyDeleteसबसे बड़ा रुपैय्या
पैसों के बारे मं आपने सटीक विश्लेंषण किया है।
ReplyDelete---------
अंधविश्वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।
bhautikta aur bhoglipsa ki andhi daud me sambandhon ka sambandh 'paisa'se jud gaya hai..
ReplyDeletebahut hi saral,sahaj shabdon me aapne yatharth ko chitrit kiya hai.
dhanyvad amitji!
पैसा,
ReplyDeleteगढ़ता है
रिश्तों की बिल्कुल नई परिभाषा।
सचमुच
पैसा,
ReplyDeleteचाहे जितना एकत्र करो
इसकी लिप्सा कभी खत्म नहीं होती।
xxxxxxxxxxxxxxxxxxx
यह इस मायावी संसार की वास्तविकता है .....सुंदर ....शुक्रिया
प्रिय बंधुवर अमित चन्द्र जी
ReplyDeleteआशा है, स्वस्थ-सानन्द हैं ।
पैसे का खेल निराला …
सही कहते हैं आप-
पैसा,
चाहे जितना एकत्र करो
इसकी लिप्सा कभी खत्म नहीं होती।
लेकिन सारी माया पैसे की
संसार में बाजे ढोल
ये दुनिया मेरी तरह है गोल
पैसा बोलता है …
~*~नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
पैसे से किसी का पेट ही नहीं भर रहा है भाई.
ReplyDeleteप्रहार करती हुई सुन्दर कविता
यही तो सभी मुसीबतो की जड है।
ReplyDeleteपैसा,
ReplyDeleteगढ़ता है
रिश्तों की बिल्कुल नई परिभाषा।
सटीक अभिव्यक्ति.आभार.
सादर,
डोरोथी.
पैसा,
ReplyDeleteचाहे जितना एकत्र करो
इसकी लिप्सा कभी खत्म नहीं होती।
सटीक बात!
पैसा हमारी जरूरतों के लिए हो न कि हम पैसे के लिए!
पैसा,
ReplyDeleteगढ़ता है
रिश्तों की बिल्कुल नई परिभाषा।
जिसके चारों तरफ बस
झूठ, फरेब और आडम्बरों की
एक अलग दुनिया है।
पैसे का बिल्कुल सही विश्लेषण किया है आपने।
बढ़िया और समसामयिक रचना।
नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें.
ReplyDeletebahut badhiya. happy new year!
ReplyDeleteनये वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteपैसा किसी को भी बेईमान बनाने को काफी है, हम ईमानदार हैं जब तक पैसा नहीं है...जैसे ही मौका मिलता है हम भी ...
ReplyDeleteचरित्र बदलना होगा ...शायद अगली पीढ़ी हमसे बेहतर होगी ! आमीन !